भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सभी दिशाएं सूनी हैं / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:52, 23 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालस्वरूप राही |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाएं कहां न सिर पर छत है और न पांव तले धरती
पूरब पश्चिम उत्तर दक्खिन सभी दिशाएं सूनी हैं।

ओ मेरे मन, भटक न घर घर नगरी बेगानी है
राहें सभी अजनबी है हर सूरत बेपहचानी है
अभी अभी आवाज़ सुनी जो तूने उत्सुक कानों से
तेरी ही प्रतिध्वनि लौटी थी टकरा कर चट्टानों से।

धीरे धीरे टूट किसी को कानोंकान पता न चले
यहां आत्महत्याएं वर्जित मृत जीवन कानूनी हैं।

चारों और सिलेटी कुहरा चारों ओर उदासी है
आधी धरती अनुर्वरा है आधी धरती प्यासी है
उगे कहां पर बीज कि पूरा युग बंजर पथरीला है
आसमान पर मेघ नहीं हैं सिर्फ धुआं ज़हरीला है।

सुब्ह चले थे दिन भर भटके, शाम हुई तो यह पाया
सारी खुशियां खर्च हो गईं और व्यथाएं दूनी हैं।

सांस न ले, विष घुल जायेगा तेरी रक्त-शिराओं में
सुरभि नहीं, अनुधूलि तैरती है पश्चमी हवाओं में
चांद सितारों तक तुझको कोई न कभी ले जायेगा
सिर्फ अंधेरा अंधगुफाओं में फिर-फिर भटकाएगा।

रंगे हुए शब्दों भड़कीले विज्ञापन पर ध्यान न दे
सभी कल्पनाएं झूठी हैं, सभी स्वप्न बातूनी हैं।