भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीड़ से अलग / बालस्वरूप राही

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:56, 23 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालस्वरूप राही |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इसीलिए शापित है मेरा अस्तित्व यहां
मिले जुले चेहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं।

उकताई शामों के हाथों में
फूलों के दीपक हैं बुझे बुझे
नहीं नहीं अपने ही कमरे की
ख़ुशबू में जाने दो लौट मुझे।

दर्पनी अकेलेपन, मैं तुझमें झाकूँगा
धुंधलाएं शहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं।

जीवन भर लीकलीक चलने से
अच्छा है कहीं बन्द हो जाना
छंदों के सांचे में ढलने से
बेहतर है मुक्तछंद हो जाना।

हाँ! मैं अपने भीतर डूब गया हूँ गहरा
तटवर्ती लहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं।

सम्भव है कोई अनसही व्यथा
दे जाये फिर मुझको जन्म नया
सूर्यमुखी अहम बहुत काफी है
रहने दो निशिगंधा आत्मदया

कोई अनुभूति विरल मुझको फिर सिरजेगी
एकरूप प्रहरों की भीड़ से अलग हूँ मैं।