यह मुझको क्या हुआ / बालस्वरूप राही
यह मुझको क्या हुआ
जब भी मैं लेता हूँ नाम किसी फूल का
बिंधी हुई उंगली का दर्द उभर आता है।
जब भी मैं छंदहीन नगरों के मंच से
सुनता हूँ लोकगीत
मुझको यह लगता है
किसी रेल के नीचे हिरनों का झुंड एक आ गया
रक्त हरा पटरी पर छा गया।
यह मुझको क्या हुआ
जहां जहां बोने थे मुझको संकल्प बीज
वहां वहां सपने दफनाता हूँ
भीड़ से गुज़रता हूँ अनछुआ
किन्तु मैं अकेले में खुद से टकराता हूँ।
यह मुझको क्या हुआ
जब भी मैं करता हूँ ध्यान रेशमी दुकूल का
आंख से पके फल-सा आंसू झर जाता है।
तारकोल में लिथड़ी औरतें गारे में सने हुए मर्द
नये नये शहरों की रचना में व्यस्त है
सभी जगह टँगी हुई नेम प्लेट बुड्ढों की
नौजवान त्रस्त हैं
इतने सब शहरों का क्या होगा।
मात्र एक घृणा भरे शब्द से मरता है आदमी
इन सारे ज़हरों का क्या होगा।
यह मुझको क्या हुआ
जब भी मैं करता अनुवाद किसी मूल का
कोई संदर्भ बिख़र जाता है
रंग सभी मिलकर ज्यों निश्चित अनुपात में
हो जाते हैं सफ़ेद
वैसे ही आज सभी संस्कृतियों ने मिलकर
पशु संस्कृति जन्मी है।
इसीलिए हर मनुष्य गुर्राता
या कि दुम हिलाता है
मौलिक के नाम पर खुद को दुहराता है।
यह मुझको क्या हुआ
जब भी मैं करता प्रतिकार किसी भूल का
मुझमें ही मेरापन थोड़ा मर जाता है।