भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हद से बढ़ के तअल्लुक़ निभाया नहीं / वसीम बरेलवी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:02, 23 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वसीम बरेलवी |अनुवादक= |संग्रह=मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
हद से बढ़ के तअल्लुक़ निभाया नहीं
मैंने इतना भी खुद को गंवाया नहीं

जाते जाते मुझे कैसा हक़ दे गया
वो पराया भी हो के पराया नहीं

प्यार को छोड़ के बाक़ी हर खेल में
जितना खोना पड़ा, उतना पाया नहीं।

वापसी का सफ़र कितना दुश्वार था
चाहकर भी उसे भूल पाया नहीं

उम्र सारी तमाशों में गुज़री मगर
मैंने खुद को तमाशा बनाया नहीं

ज़िन्दगी का ये लम्बा सफ़र और 'वसीम'
ज़ेब में दो क़दम का किराया नहीं।