भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वेलेन्टाइन / संजीव कुमार 'मुकेश'

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:44, 23 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजीव कुमार 'मुकेश' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।
80 साल के बाबा,
मनबे लगला वेलेन्टाइन।

फटफटया-स्कूटी अखने,
खूब सड़क पर दौडे।
बीच सड़क पर लपटल मिलतो,
सगरो छऊड़ी-छौडे़।
युवा देश के राह भटक गेल,
नञ् हई अच्छा साइन।
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।

देखा-देखी नकल करूँ, ई!
नञ् हल अप्पन देश।
सियार रांग के शेर बना दे,
धरके नकी भेष।
धरती के कोना-कोना अब,
 'योगा' कर रहलइ ज्चाइन।
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।

चॉकलेट, टैडीवीयर, गुलाब के,
बढ़ल हो अखने सेल।
चतुर रंगल सियार के इ सब,
गढ़ल-बनाबल खेल।
कोय मॉर्निंग से बिजी हे,
कोय नाइन-टू-नाइन।
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।

माय-बाप के चूल्हा झोकलक,
पढ़के गुगल चलीसा।
गलती से कुछ पुछ देला तो,
निपोरे अप्पन बत्तीसा।
चेतऽ! कंठ तक निंगल गेलो हे,
इ पछियारी कमायन!
हमर सभ्य-सनातन के,
के नजर लगइलक डायन।
80 साल के बाबा,
मनबे लगला वेलेन्टाइन।