सुखल फगुआ / संजीव कुमार 'मुकेश'
आशिन बितगेल, गुजरल माघ,
पर नञ् पर मुँह देखलूँ एगो अगुआ।
ये भौजी त इहो साल अब,
बीततई सुखल ठन-ठन फगुआ।
बड़का मालीक के फरमान,
बेच पकौड़ा खोल दुकान।
नौकरी के नञ् बौआ कहिओ,
पुरा होतऊ तोहर अरमान।
हमरा पुरा बुझा गेल हे,
इ हथ सबसे बड़का ठगुआ।
ये भौजी त इहो साल अब,
बीततई सुखल ठन-ठन फगुआ।
पापा के जब खेत बिकल हल,
तब कइलूँ भोपाल से बी.टेक।
अब तो इंजीनियर के डिग्री,
होल हे हमरा बड़का हेडेक।
सपनों में अब चाय-पकौड़ा,
नीन नञ् आबे होलूं रत-जगुआ।
ये भौजी त इहो साल अब,
बीततई सुखल ठन-ठन फगुआ।
हमर-तोहर है खुन के पैसा,
घूम रहलै सब देश-विदेश।
अबतों 'मन के बात' सुनऽ नञ्,
इ हे दोसर ले उपदेश।
ओकरे चांदी कट रहलय ह,
जे कुक्कुर जइसन पीछ लगुआ।
ये भौजी त इहो साल अब,
बीततई सुखल ठन-ठन फगुआ।