भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक याद / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:19, 26 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान' |अनुवा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

होके ग़मे-फ़िराक़ में दुनिया रो बेख़बर
रोता रहा हूँ मैं तेरी तस्वीर देखकर

आंसू तो थम चुके हैं मगर दिल है बेक़रार
तेरे फ़िराक़ में हैं फज़ाएं भी सोगवार

चारों तरफ फज़ाओं में बिखरा हुआ है ग़म
सहमी हुई घटाओं में ठहरा हुआ है ग़म

आ आके मुझको दर्द से करती है बेक़रार
गुज़रे हुए ज़माने की इक याद बार बार

आने से मेरे एक दफा तुम थी बेख़बर
बैठी हुई थी खोई सी मिलने की आस पर

गेसू ग़मे-हयात से आंखें झुकी हुई
अपने सनम की याद में जोगिन बनी हुई

हैरत से मुझको देख के तुमने कहा था 'तुम'
कहते हुए फज़ाओं ने तुमको सुना था 'तुम'।