भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी बीत रही है / नाज़िम हिक़मत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:29, 26 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नाज़िम हिक़मत }} "ज़िन्दगी बीत रही है, लूट लो वक़्त का व...)
"ज़िन्दगी बीत रही है,
लूट लो वक़्त का वैभव,
इसके पहले कि सो जाओ
नींद न टूटने वाली;
भर लो काँच के पैमाने को सुर्ख़ शराब से नौजवान,
भोर हुई जग जाओ"
अपने नंगे बर्फ़ीले ठण्डे कमरे में
नौजवान उठा सुनकर चीत्कार
फ़ैक्ट्री की सीटी की,
जो देरी के लिए माफ़ नहीं करती