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लहू न हो तो क़लम तर्जुमां नहीं होता / वसीम बरेलवी

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लहू न हो, तो क़लम तरजुमां नही होता
हमारे दौर मे आंसू ज़बां नही होता

जहां रहेगा, वही रौशनी लुटायेगा
 किसी चराग़ क अपना मक़ां नही होता

यह किस मुक़ाम पे लायी है मेरी तनहाई
कि मुझ से आज कोई बदगुमां नही होता

बस, इस निगाह मेरी राह देखती होती
यह सारा शह्र मेरा मेज़बां नही होता

तेरा ख़याल न होता, तो कौन समझाता
ज़मी न हो, तो कोई आसमां नही होता

मै उसको भूल गया हूं, यह कौन मानेगा
किसी चराग़ के बस मे धुआं नही होता

'वसीम' सिदयों की आंखों से देिखये मुझको
वह लफ़्ज़ हूं, जो कभी दास्तां नही होता