भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काला पत्थर / हरिओम राजोरिया

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:36, 1 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिओम राजोरिया |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक सूरत ढल गई काले पत्थर में
गल्ला मण्डी चौराहे पर आकर
जम गई एक काली मूरत
अब अनाज से लदी बैलगाड़ियाँ
चौराहे को उनके पिता के नाम से जानेंगी

फूलों के हारों से लदे कैलाशवासी पिता
तनकर बैठे हैं नक्कासीदार सिंहासन पर
देहात से आए किसान
जैसे काँख में दबाए रहते हैं फटी छाता
पिता की काँख में भी
वैसी ही दबी है पत्थर की तलवार
दूसरे हाथ में लिए हैं काले पत्थर का गुलाब
काले पत्थर में दमकता रोबीला चेहरा
काले होंठों पर फैली रहस्यमयी काली मुस्कान
पर कुआँर की इस चटकती धूप में
काले माथे पर नहीं हैं
काले पसीने की महीन काली बून्दें

अपने दाहिने हाथ से वे
हटा रहे हैं रेशम की पीली चादर
नमन करते हुए पिता की स्मृति को
अनेक चेहरे हैं उनके आसपास
पर वे दूर कहीं
सूने आसमान की तरफ देखते हैं
पास ही देशी दारू की कलाली है
जहाँ से लौट रहे हैं झुकी कमर वाले हम्माल

अपने भीतर ही डूबे हुए चुपचाप
हम्माल जा रहे हैं म
मण्डी की ओर
पर वे सोचते ज़रूर होंगे
ये गोरे-भूरे साफ़-सुथरे आदमी
काले पत्थरों में ही क्यों ढलते हैं।