भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिंदगी भर पीर को हमने पिया / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:09, 1 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=रजन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिंदगी भर पीर को हम ने पिया ।
यों जले जैसे कि मंदिर का दिया।।

दर्द से हरदम रहा दिल चूर पर
है नहीं एहसान गैरों से लिया।।

लोग तो बस जख़्म ही देते रहे
घाव इस दिल का स्वयं हमने सिया।।

विघ्न-बाधाओं से हम डरते नहीं
पार है हम ने हिमालय को किया।।

हम अँधेरों से न घबराये कभी
दीप सा जल रोशनी हमने किया।।

खौफ़ कोई क्या हमें दिखलायेगा
कृष्ण बनकर अग्नि को हमने पिया।।

सृष्टि हो पीड़ित ना विष की ज्वाल से
शंभु बन विष पान हम ने ही किया।।