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मैं अकेला / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
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मेरे ख़्वाबों की कश्ती
और अहसास के पंछी
कश्ती पानी में तैर रही
तो पंछी आकाश में
के पंछी भी, कश्ती भी
दोनों, एक सीध में हैं !
कश्ती पर बैठा हुआ मैं
ताकता रहा पंछियों को
और सोचता रहा कि.
मैं अकेला क्यों हूँ . .?
नीला गगन पिघलता गया
जैसे नीली बर्फ़ पिघल रही हो
समंदर भी नीला - नीला
आकाश भी नीला - नीला
मगर मैं और मेरे ख़याल
जैसे पीले-से पड़ गए हैं !!
और मैं सोचता रहा कि.
मैं अकेला क्यों हूँ ?
. . .
. . .
आख़िर,
मैं अकेला क्यों हूँ ?