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गंध / विनय सौरभ
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(संदीप नाईक के लिए)
पुरानी किताबों की गंध की तरह
बसी है तुम्हारी याद
किताबें जो हमने पैदल चलकर
पैसे बचाते हुए खरीदीं
किताबें जो हमें प्रिय थीं
और जो हमें उपहार में मिलीं
और कुछ फुटपाथ पर
विस्मित कर देने वाली तारीख़ों
और हस्ताक्षरों से भरी हुईं
धूसर हो गयी शीशम की आलमारी में
बरसों से जतन से रखी गयीं
जिन्हें झाड़-पोंछ कर आता रहा हूँ
जीवन के लंबे और अपरिचित रास्तों पर
स्मृतियों को बचाता हुआ
समय की धूल से !
किताबों पर अपने नाम
शहर और तारीख़ लिखने की याद बाक़ी है
गोकि हमें अभी और शहर बदलने थे !
अभी भी शामिल हो तुम
एक ऐसी ही याद में !