उस लोकधुन की स्मृति में / विनय सौरभ
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उन्हें सूरजकुंड के मेले में सुना था कई बरस हुए
यद्यपि हिमाचल के लोक धुनों कि मुझे कोई पहचान नहीं
पर कोई लय मुझे बाँधती थी
एक आलाप किसी स्त्री का मुझे अनजाने खिंचाव से भर देता था
वह वाद्य है बैठा मेरे दिमाग में अब तक
जिस पर मैं बर्बाद हुआ
कोई ढ़प-ढ़प करता वाद्य स्वर गले के साथ संगत करता हुआ
वह तबला नहीं
ढोलक नहीं
वह क्या था, कैसे बताऊँ !
मैं तो सुंदर नींद और सपने की अवस्था में था
क्या वह स्त्रियों के दुख के गीत जैसा था ?
नहीं - नहीं ! - मुझे तो ऐसा लगा कि कोई शांत नदी मध्यम आवाज के साथ पहाड़ों से उतर रही हो
फिर लगा इसमें स्त्री जीवन की
विडंबनाओं की कथा है !
मैंने कयास लगाया और क्या पता था कि यह धुन मुझे जीवन भर के लिए ही लपेट लेगी !
कोई बताए मुझे उस गीत में क्या था
और वह धुन मुझे कहाँ मिलेगी
. .....मैं उसका हो जाउँगा !
कई बरस हुए सूरजकुंड के मेले में गए हुए
क्या हिमाचल जाऊँ तो वह धुन मुझे मिलेगी ?
मैं अगर कहूँ कि उस लोक धुन की स्मृति मुझे बेईमान होने से बचाती है
तो यह सुनकर आप हँसेंगे
उसे धुन ने उस गीत ने मुझे प्रेमी बनाया
उस स्त्री के आलाप में व्याप्त दुख की स्मृति में मैं कई कई रात रोया हूँ
क्या कोई पतियायेगा ?
कि उस गीत की तलाश में गीत बेचने वाले दुकानों पर धूप- बताश में जार बेजार फिरा हूँ
कई कई घंटे रेडियो से कान आड़े ने पड़ा हूँ
मुझे वह धुन कहाँ मिलेगी !
दुर्गा पूजा में जहाँ कबीर के पद नहीं फिल्मी गानों के रीमिक्स बजते हों
.........आप की इस नगरी का
भी क्या भरोसा करूँ !