भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बात फूलों की सुना करते थे / साग़र सिद्दीकी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:34, 8 अक्टूबर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बात फूलों की सुना करते थे
हम कभी शेर कहा करते थे

मिशअलें ले के तुम्हारे ग़म की
हम अंधेरों में चला करते थे

अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
चोट खा कर जो दुआ करते थे

तर्क-ए-एहसास-ए-मोहब्बत मुश्किल
हाँ मगर अहल-ए-वफ़ा करते थे

बिखरी बिखरी हुई ज़ुल्फ़ों वाले
क़ाफ़िले रोक लिया करते थे

आज गुलशन में शगूफ़े 'साग़र'
शिकवा-ए-बाद-ए-सबा करते थे