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ज़िन्दगी किराये का मकान बन गयी / शैलेश ज़ैदी

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ज़िन्दगी किराये का मकान बन गयी।
अब खुशी भी दर्द के समान बन गयी॥

पत्थरों को छेनियों की चोट जब लगी।
एक अमूर्त कल्पना महान बन गयी॥

अंधकार की घुटन फ़िजा में छा गयी।
साँस आदमी की बेजुबान बन गयी॥

पक्षियों के शोर से दरख्त हिल गये।
मन की साध सुबह का विधान बन गयी॥

डर गया वो सुर्खियों से आसमान की।
धूप इंक़लाब का निशान बन गयी॥

वो हँसी कि जिसकी गूँज अब भी है कहीं।
मन की वेदनाओं का निदान बन गयी॥