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साया कैसा धुप भी नापैद हो जाती है अब / शैलेश ज़ैदी

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साया कैसा धुप भी नापैद हो जाती है अब,
जिन्दगी सांसों में अक्सर विष पिरो जाती है अब.

बंद कमरे में धुंयें के बीच कैसे साँस लूँ,
छटपटाकर आरजू जीने की सो जाती है अब.

कैसे गीली लकडियाँ सूखें जले तरह आग,
रोज़ आ-आकर उन्हें बारिश भिगो जाती है अब.

मैं मुसाफिर हूँ चला जाऊंगा मत छेडो मुझे,
मेरी दुनिया ख़ुद मुझे नश्तर चुभो जाती है अब.

रेत पर जलते हुए पांवों का शिकवा क्या करूं,
इस समंदर की हवा तक आग हो जाती है अब.