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स्नेह भरे गर्वीले / सवाईसिंह शेखावत
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सीधे स्थिर खड़े घर को देखता हूँ
और अपने पुरखों को याद करता हूँ
पाँव तले की ज़मीन सिर पर का आसमान
आँगन का साझा सहकार याद करता हूँ
याद करता हूँ वह ज़बान जो माँ से सीखी
साँवली काली पड़ती माँ की त्वचा याद करता हूँ
विपदा की खरोचों के बीच बची यक़ीन की ज़मीन
खारी जुबान में छिपी मिठास याद करता हूँ
ठसाठस जिंदगी से भरा वह भरपूर अपनापन
एक तालाबंद गुमशुदगी का निज़ाम याद करता हूँ
घर के कोने अंतरों में बसी समूची स्निग्ध नमी
गाँव गली का विरल एतबार याद करता हूँ
दुनिया के तमाम-तमाम बेघर लोगों को
पनाह देने का ख़्वाहिशमंद नहीं मैं
बस इतना चाहता हूँ वे मेरे पड़ौसी हों
स्नेह भरे गर्वीले।