मुक्तक-1 / देवेश दीक्षित 'देव'
मैं अक्सर डूब जाता हूँ,कभी साहिल नहीं मिलता
ये कश्ती सौंप दूँ किसको, कोई काविल नहीं मिलता
दिखावे की मोहब्बत से हमेशा दूरियाँ वेहतर
कभी कमज़र्फ लोगों से हमारा दिल नहीं मिलता
लुटा सकता हूँ सब दौलत,अगर ये काम हो जाये
हमारी ज़िंदगी फ़िर से सुहानी शाम हो जाये
बहुत शिद्दत से अपना बचपना जब याद आता है
पका फल फ़िर दुबारा चाहता है ख़ाम हो जाये
कैसे-कैसे मंज़र देखे,इस दिल में संत्रास लिए
उम्र कटी काँटों में अपनी फूलों का एहसास लिए
साकी, मय, पैमाने सब कुछ मेरी ख़ातिर हाज़िर थे
फ़िर भी दिन गुज़रे हैं अपने,इन अधरों पर प्यास लिए
मैं अक्सर डूब जाता हूँ,कभी साहिल नहीं मिलता
ये कश्ती सौंप दूँ किसको, कोई काविल नहीं मिलता
दिखावे की मोहब्बत से हमेशा दूरियाँ वेहतर
कभी कमज़र्फ लोगों से हमारा दिल नहीं मिलता
सकूँ मिलता नहीं ये बेकरारी उम्र-भर की है
दवा कोई नहीं लगती बिमारी उम्र-भर की है
किसी से दिल लगाने का तज़ुर्बा ये हुआ मुझको
नशा बस चार दिन का है,ख़ुमारी उम्र-भर की है
किसी को जीत लगती है,किसी को हार लगती है
किसी को सेज फूलों की, किसी को ख़ार लगती है
हमारी ज़िंदगी यारों ग़मों का एक दरिया है
इसी को तैरकर जीवन की कश्ती पर लगती है
हक़ीक़त जानते हैं सब, मग़र फ़िर भी मुकरते हम
यहीं सब छोड़ जाएंगे, बहुत बेहतर समझते हम
किसी की जेब काटेंगे, किसी की मेड़ काटेंगे
अग़र कुछ साथ ले जाते तो क्या-क्या कर गुज़रते हम
वफ़ाओं का सिला वो इस क़दर हर साल देती है
मिरी हर एक ख़्वाहिश को वो हँसकर टाल देती है
अजब दस्तूर है उसका,न जीने दे,न मरने दे
मैं जब भी भूलना चाहूँ वो चिट्ठी डाल देती है
कपट,छल,झूठ,लालच की जो भाषा पढ़ गए होते
कलम जो बेच दी होती तो आगे बढ़ गए होते
हुनर जो आ गया होता मुझे भी जी-हुजूरी का
सफ़लता की बहुत सी सीढ़ियों पे चढ़ गए होते
जो अँधेरों को उजाला कह नहीं पाते यहाँ,
झूठ के इस दौर में केवल वही बदनाम हैं
पारसाई पस्त है अब देखकर ये वाक़या
बीच कौओं की सभा में कोयलें बदनाम हैं