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कौरव सभा में / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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द्रौपदी की साड़ी खुलती जा रही है
और लिपटती जा रही है
मेरे जिस्म पर
वह शर्म से पानी-पानी हुए जा रही है
नंगी होने के डर से
मैं भी शर्म में डुबा हूं
पुंसत्व का अभिमान खोकर
और टकटकी लगाकर
हम दोनों को देखते हुए
कुत्सित मुस्करा रहा है
हस्तिनापुर !