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तुमसे कितनी उम्‍मीदें थीं / ओम निश्चल

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               निरंकुशा: हि कवय: ।।
               तुमसे कितनी उम्‍मीदें थीं।।

तुमसे कितनी उम्‍मीदें थीं, तुम आँखों केे तारे थे ।
पर तुमने ही नाव डुबोई, तुम सत्‍ता के मारे थे ।

जिनके हाथ क़लम, वे दुश्‍मन, तुम बस यही समझते थे,
तुमने उनकी लाठी छीनी, जिनके तुम्‍ही सहारे थे ।

भीष्‍म पितामह शरशय्या पर, लेटे, बस, यह साेेच रहे,
उनका क्‍या गुनाह था, वे तो, बस, वक़्तों के मारे थे ।

तुमने इनसानों को इनसानों से बेशक बाँट दिया,
भूल गए भारत माता के, वे भी राजदुलारे थे ।

बस्‍ती-बस्‍ती कहते घूमे तुम, अच्‍छे दिन आएँगे,
ख़ुशफ़हमी में भूल गए हम, वे तो केवल नारे थे ।

फिर इनसानों की बस्ती में खद्दर वाले घूम रहे,
उनके चेहरे पर विनम्रता, कल तक जो हत्यारे थे ।

लोकतन्त्र के महासमर के, वे सब नायक कहाँ गए,
जब गान्धी नेहरू लोहिया के सारे स्‍वप्‍न हमारे थे ।