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जाति की बू / असंगघोष

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बन्द दरवाज़े की बगल में
गाँधी टोपी लगाए
स्टूल पर अकड़कर बैठा
यह सफ़ेद कपड़ो में लिपटा
आदमी !
कभी अर्दली,
कभी दरबान,
कभी चपरासी
कभी भृत्य कहाता है।

लटकाता है वह
अपनी सफ़ेद कमीज़ पर
एक लाल कपड़े की पट्टिका
कन्धे से नीचे उतरती हुई
         पुरातन चपड़ास !
और ख़ुद को कलक्टर
से कम नहीं समझता।

जब भी बजती है
घण्टी
वह दरवाज़ा ढकेल अन्दर आ
सिर झुका
खड़ा हो जाता है
आदेश लेने।

फ़ाइलें उठाता है
बाहर से अन्दर
अन्दर से बाहर
लाता-ले जाता है,
जब मैं कहता हूँ
पानी पिलाओ !
तो मुझे महसूस होने लगती है
इसके चेहरे पर
झलकती हुई कोफ्त।

इसे नागवार लगता है
मुझे पानी पिलाना
यह हुक़्म-उदूली से
ख़ुद को बमुश्किल
बचाता हुआ
ज़ोर से पटक देता है
मेरी मेज़ पर
एक गिलास
पानी !
कुछ छलकता,
ढुलता है
मेरी मेज़ के काँच पर फैलता है
बहकर बनता है
भारत के नक़्शे की तरह,
फ़ाइलों को भिगोता हुआ
मेरे मन में कटार-सा उतरता है
पानी।

जानता हूँ
गिलास में बचा पानी !
मेरे लिए ज़हर का घूँट है
फिर भी
मैं इसे पीता हूँ
उसकी इस उद्दण्डता पर
मैं उसे दण्डित भी नहीं करता,
ताकि मेरे हर बार पानी पिलाने का कहते ही
इसकी श्रेष्ठता पर
लगती रहे चोट
कचोटता रहे उसका मन
कि उसे ये भी दिन देखने थे।