भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम न मरब / विजय कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन और शब्दों के बीच
क्या बिछा रहता है
मैं
उन अन्तरालों में जाना चाहता था
दूर जुलूस की आती थीं आवाज़ें
सड़क पर आवारा कुत्तों की आँखों में याचनाएँ
एक झुर्रियोंदार बूढ़े ने कहा
लो मेरा थोड़ा-सा बोझा उतार दो
चन्द्रमा था खण्डहरों की स्याही पर उगा हुआ
सुनसान समुद्र से चीख़ती थीं हवाएँ और हज़ार लहरें

मैं उत्सवों की शाम
शामियाने के पीछे
जूठे बर्तन धोते बच्चों के पास बैठ गया
मैंने उन्हें परीकथाएँ सुनाईं
वे सब अब भी कितना यक़ीन करते थे अचरजों पर
उनका तो क्या होता
मैंने ही देखीं आसमान के रंगों में
जीवन की परछाइयाँ
टिन की छत पर, चौखट पर, खिड़कियों की सलाख़ों पर
जेल के दरवाज़ों पर
बन्द तालों पर मैंने मनुष्यों की उँगलियों के निशानों को देखा
आँगन में रखी टूटी कुर्सियों पर बैठे थे पुराने वक़्त
पनियल आँखें और और झुके हुए सिर
वे कुछ बोलते थे
कहे और अनसुने के बीच साँस फूल-फूल जाती थी
तीसरे पेज के अन्तिम कॉलम में
यह जो एक गुमशुदा औरत की तस्वीर है
और अदालतों में सुनवाई की अगली तारीखें
और अस्पताल के अहातों में शव की शिनाख़्त होने तक
जाने कब से खड़े कुटुम्बी
एक दिन शहर के सारे सिगनल बन्द थे
मैंने कहा कि निरापद जगहों पर रख दी जाएँ
मनुष्यों की अनश्वरताएँ
आसमान के सितारों की झिलमिल परछाइयाँ
वृद्धाश्रमों के वार्षिकोत्सव
और बीयर-बार में देर रात तक काम करने वाली लड़कियों की देहें
धीरे-धीरे ही सही
समझ में आने वाली स्थितियाँ
और
न अमल में आने वाली योजनाएँ भी

हत्यारे मोहम्मद रज़ा को डर था
उसकी दूसरी बीवी
झाड़ू-पोंछा की कमाई देना बन्द कर देगी
बदनाम हो जाएगा एक मरद जात-बिरादरी में
लाशों के कपड़ों से बरामद होती हैं डायरियाँ
कुछ टेलिफ़ोन नम्बर जो कभी लगते नहीं

मैं ऐसे ही थोड़े-थोडे़ अन्तरालों में उतरा
डिस्काउण्ट सेल में जब भी मिलती थी
आधे दाम पर ख़ुशी
मैं शॉपिंग सेण्टरों में घुस जाता था
वहाँ घोषणाएँ हो रही थीं कि
हँसने से माँसपेशियों का तनाव कम होता है
मैंने दोपहर में घरेलू सीरियलों को देखकर
रोती हुई स्त्रियों के भीगे हुए गाल देखे
वे बोलीं यही है संसार। यही है जीवन ।
पाप पुण्य भोगने के लिये यह काया मिली है
और सब माथे पर लिखा है

हजारों वॉट की दूधिया रोशनी में नहाए स्टेडियमों में
क्रिकेट मैच हो रहे थे
एक उन्मत्त भीड़ थी
सर्द रात में बाहर फ्लाईओवरों के नीचे रात ग्यारह बजे
भूखे बच्चे ठिठुर रहे थे

नालियों में गन्दे पानी के बहने की आवाज़ को देर तक सुना मैंने
बाहर अन्धेरा था
एक सुनसान सड़क किसी रोशन खम्भे की तलाश में दूर तक जाती हुई
एक लोकल ट्रेन की घड़घड़ाहट
और नींद की गोलियों में थोड़े से बचे हुए आवेश थे

लाल चौक से श्मशान भूमि के रास्ते तक
मैं हर बार शामिल हुआ अनजानी शवयात्राओं में
दुर्घटनाओं के बाद हताहतों की संख्या कहाँ तक पहुँची थी
यह कभी मालूम नहीं पड़ता था

बहुत-सी अपरिचित सड़कों और बहुत-सी अनाम गलियों में
बहुत सी शामों में
घुसा मैं पहली बार
मिला वहाँ बहुत सारे परिचित चेहरों से
वे सब जो कल भी देखे थे
उसके पहले भी उसके पहले भी
जो दूसरी दूसरी सड़कों और गलियों में मिले थे
और उनकी ख़ामोशियाँ पत्थर नहीं थीं
और उनके चीत्कार बिगुल नहीं थे
मैं एक क्षण रुकर उनके गले लग रो लेना चाहता था
कोई एक सिलसिला जो अचानक दूसरे सिलसिलों से निकला था

इसने खो दिया था अपना क्रम
और जीवन ज़्यादा खुल जाता था घबराहट में एक गहराई शाम।