संसद का गीत / गोरख पाण्डेय
सावधान ! संसद है बहस चल रही है
भीतर कुछ कुर्सियाँ मंगाओ
बाहर जेलें नई बनाओ
बाँधो लपटें झोपड़ियों की
महलों की रौनकें बचाओ
खलबली मची है जंगल में
आग जल रही है या भूख जल रही है
जनता के नाम सन्देशा है
बिल्कुल आराम से मरो तुम
पर अपने राज को चलाने
के लिए हमें चुना करो तुम
चुने हुए हाथों से ताक़त
तेल मल रही है या ख़ून मल रही है
बूटों से रौन्दकर सभी को
खेल रही नक़ली आज़ादी
मातृभूमि बेच दी जिन्होंने
नेता हो गए पहन खादी
ख़ाली हो रही पतीली में
देश गल रहा है या दाल गल रही है
कुरसी, कानून, तिजारी का
गठबन्धन धूल में मिला दो
यह सदर मुकाम है ठगों का
ऐ लोगो ! बमों से उड़ा दो
देख लो प्रपंच-योजनाएँ
अन्न फल रही हैं या मौत फल रही हैं