स्वर्णकाल / आर्थर रैम्बो / मदन पाल सिंह
और तब एक दिव्य आवाज़
हो क्षुब्ध उठने लगी मेरे बारे में
विरोध का स्वर लेकर :
और ये हज़ारों प्रश्न-संशय
एक-दूसरे में उलझे, रक्तबीज की तरह गुणित
नहीं पहुँचा पाऍंगे किसी अन्तिम परिणाम पर
सिवाय उन्माद, चिन्ता और व्यग्रता के पाताल में ।
पहचानो यह चक्र
इतना सुखद, इतना आसान
यह तो है एक लहर, पेड़-पौधे
और यह हैं तेरा परिवार !…इत्यादि …
फिर से गाने लगी वह
इतना आनन्द-भरा और बहुत सुगम !
और साक्षात्,स्पष्ट –
– मैं गाने लगा उसके साथ –
पहचानो यह घटनाचक्र
इतना सुखद, इतना आसान
यह तो है एक लहर, पेड़-पौधे
और यह हैं तेरा परिवार !…आदि …
और तब एक दिव्य आवाज़
हो क्षुब्ध उठने लगी मेरे बारे में
विरोध का स्वर लेकर :
तभी उसका स्वर समा गया
श्वॉंसों के अन्तर में
जर्मन लहज़े-सा कड़क उसका स्वर
पर उत्साह और जीवन दीप्ति से भरा :
कपट-भरी, शातिर है दुनिया
और यदि यह तुम्हें डालता है अचरज में
जीओ और झोंक दो अपने गहरे दुःख-दर्द अग्नि में ।
ओ मनमोहक महल,
कितना साफ़ है तुम्हारा जीवन !
कितना समय बीता तुम अवस्थित हो
हमारे पूर्वज, भाई-बन्धुओं का शाही प्रताप लिए !… आदि …
मैं भी गाता हूँ :
असंख्य आत्माओ !
स्वर-नाद जो बिलकुल दिखे नहीं, घुमड़ रहे हैं अन्तर में
घेर लो मुझे
अपनी दिव्य, पवित्र आभा में …इत्यादि …
मूल फ़्रांसीसी भाषा से अनुवाद : मदन पाल सिंह