भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं / शहरयार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:45, 29 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहरयार |संग्रह=शाम होने वाली है / शहरयार }} बर्फ़ की उजल...)
बर्फ़ की उजली पोशाक पहने हुए
इन पहाड़ों में वह ढूंढ़ना है मुझे
जिसका मैं मुन्तज़िर एक मुद्दत से हूँ
ऎसा लगता है, ऎसा हुआ तो नहीं
ख़्वाब को देखना कुछ बुरा तो नहीं।