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पुराने दोस्त / रमेश क्षितिज / राजकुमार श्रेष्ठ

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चलते-चलते
किसी मोड़ पर, कर्कश भीड़ में
गुम्बद की टोपी पहने हुए मन्दिर के पास
पीठ झुकी बुज़ुर्ग रास्ते के किनारे
या मद्धिम रोशनी के नीचे
किसी अप्रचलित रेस्टोरेंट में
जब मिलते हैं अचानक पुराने दोस्त
स्थापित होते हैं मधुरिम एकांत के क्षण

ख़ुद-ब-ख़ुद बोलने लगते हैं होंठ
आँखों की पुतली के भीतर चमकते हैं ख़ुशी के दीप
फिर यकायक खिलता है यौवन ज़िन्दगी में
जब मिलते हैं – पुराने दोस्त किसी दिन !

सरसर बहती हैं यादों की हवाएँ
डोलते हुए ह्रदय की पत्तियाँ
वो बड़ी बहन की शादी और लड्डू की चोरी !
चाँद के उजाले में लुका-छिपी खेलना
नदी किनारे वो बालू के घर बनाना
स्कूल से भागकर दिनभर पोखर में तैरना
और जुराब में पुराने लत्ते भरकर बॉल बनाना

छोटी-सी अनबन पर कई दिनों तक बातें न करना
फिर बतियाने की उजलत में रहना
क्रमशः बदलते जाते हैं मंज़र
ताज्जुब लगता है तब
जब शादी की बातों से शर्माने वाला दोस्त
पूछता है बे-हिचक –
‘कितने हुए बच्चे ?
अब तो बड़े हो गए होंगे !’

वे कॉलेज के स्वर्णिम दिन
उस साँवली लड़की को लिखे अधूरे प्रेम-पत्र
नदी किनारे की पिकनिक
फिर मध्यान्तर में अन्ताक्षरी
सपने जैसे उफ़नते शबाब में
दिल रुलाने वाला एकतरफ़ा प्रेम
दीवार पर खड़े होकर दिए गए जोशीले भाषण
टेबल बजाकर गाए गए कुछ आधुनिक गाने
और अन्तिम विदाई !

बजता हुआ किसी मीठे गाने को दुहराकर सुनने जैसा
हम उलता घुमाते हैं समय को
फिर लौटते हैं इतिहास के अनेक मोड़ों पर
जब कहता है दोस्त –
‘ख़ुद के लिए जीना तो बस उतना ही था !
अब तो टूटकर ... ‘

हैरानी तो होती है तब और प्यार भी आता है
जब मिलता है अभी-अभी परिचित हुआ कोई नया दोस्त
वर्षों पुराने दोस्त की हमशक्ल लिए – किसी मोड़ पर !

मूल नेपाली भाषा से अनुवाद : राजकुमार श्रेष्ठ