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ये पत्तियों पे जो शबनम का हार रक्खा है / के. पी. अनमोल

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ये पत्तियों पे जो शबनम का हार रक्खा है
न जाने किसने गले से उतार रक्खा है

उस एक उजले सवेरे के वास्ते कब से
अँधेरी रात ने दामन पसार रक्खा है

ग़ज़ल ज़ुबां पे, हँसी लब पे, रंग आँखों में
तुम्हारे प्यार ने मुझको सँवार रक्खा है

मज़ा सफ़र में मिले और बची रहे सेहत
टिफ़िन में खाने के साथ उसने प्यार रक्खा है

कुछेक लोग मुझे जां से ज़्यादा प्यारे हैं
तुम्हारा नाम उन्हीं में शुमार रक्खा है

अगर रुका तो कहीं ये थकान उठने न दे
ये सोच, चलना अभी बरक़रार रक्खा है

ज़रा-सा देख के अनमोल तुम बताओ मुझे
ये मेरे नाम से क्या इश्तिहार रक्खा है