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आधी रात को / अनिल जनविजय

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रात है, आधी रात है
नदी किनारे वन में खड़ा हूँ मैं
सिर्फ़ पूरनमासी के चमचमाते
चाँद का साथ है

साफ़ और चटक इस रात में
बंसवारी के हरे पत्ते
हवा के साथ अठखेलियाँ कर रहे हैं
ऐसा लग रहा है मानो
चाँद कोई रुपहली मछली हो
जिसे पकड़ेने के लिए बाँस की पत्तियों ने
अपना सुनहरा हरा जाल बिछा दिया हो
मैं चन्द्रमा और पत्तियों के इस खेल में डूबा हूँ

नकटिया नदी की कल-कल
गूँज रही है कानों में

तभी कोई अलबेला पक्षी
कू-कू की मीठी आवाज़ करता
मेरे सिर पर से गुज़र जाता है
और रात का यह अलबेला क्षण
मेरे मन में कहीं गहरे उतर जाता है।

(मस्क्वा, दिसम्बर 2018)