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दलित कलिका / पुरुषार्थवती देवी

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मुझे देखकर खड़े हँस रहे, विकसित सुन्दर फूल।
करते हो परिहास हास, तरु शाखाओं पर झूल॥
हाव-भाव से अपने जग को देते सरस सुवास।
मुझे देख गर्वित हो करते किन्तु, व्यंग उपवास॥
यदपि धूलि-धूसिता बनी मैं-हूँ सौन्दर्य-विहीन।
भूमि-शायिनी, पदक्रान्त हो गई कान्ति द्युति-हीन॥
नव जीवन का उषः काल था कुसुमित यौवन-उपवन।
रस-लोलुप मधुकरदल करता था सहर्ष आलिंगन॥
विशद नील नभ से करती थी चन्द्र-सुधा-रस-पान।
मन्द अनिल से आन्दोलित हो, गाती नीरव गान॥
गर्व, दर्प सब खर्ब हुआ अब, गिरी, हुई हत-मान।
करुणा-क्रन्दन है केवल अब होने तक अवसान॥
हो गर्वित, उन्मत्त विटप पर झूम रहे हो फूल।
मुझे देख फूले हो, जाना निज अस्तित्व न भूल॥