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भूमिका - 2 / वो पता ढूँढें हमारा

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"अवाम के लिये अवाम की ग़ज़लें"

   मीर, गालिब, निदा फ़ाज़ली और फिर दुष्यंत कुमार तक गज़लों ने एक लम्बा सफ़र तय किया है। पहले शायर बादशाहों के पनाह में रहे। उन्हें खुश करने के लिये इश्क़, हुश्न, मय, मैख़ाना और साक़ी पर क़सीदे काढ़ते रहे। आम आदमी के जीवन और ज़द्दोज़हद से उनका कोई मतलब नही रहा। बहुत दिनों तक यह शायरी इसी वृत्त में घूमती रही। जब शायर राज्याश्रयों से मुक्त हुये . सामंतवादी व्यवस्था का पतन हुआ तो ग़ज़लों को नया रंग मिला। कुछ शायरों ने अवाम के लिये शायरी का आग़ांज किया। कुछ ऐसे शायर हमारे सामने आये जिन्होंनें अपनी शायरी को आम जन से जोड़ने की कोशिश की। ऐसे शायरों में नज़ीर अकबरबादी और अकबर इलाहाबादी का नाम लिया जा सकता है। उसके बाद फ़िराक़ गोरखपुरी, फै़ज़ . जोश मलीहाबादी जैसे शायरों ने अपने तेवर बदले। उन्होंने अपनी शायरी को स्थानीयता से जोड़ा। फ़िराक़ और जोश की शायरी में जहां अवधी भाषा की रंगत थी, वही फ़ैज़ में पंजाबियत थी। फै़ज़ तो बाक़ायदा इन्क़लाबी शायर थे। लोकप्रिय शायरों में साहिर, कैफ़ी आज़मी,सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी का ज़िक्ऱ किया जा सकता है। फिल्म में लिखनेवाले कतिपय शायरों ने अपनी शायरी के मयार को बनाये रखा। इन शायरों ने जहाँ अपने काव्य और कथ्य को बदला, वहीं ंपर उनके अंदाजे़- बयाँ में भी तब्दीली हुई।
  उर्दू ग़ज़लों के साथ हिंदी ग़ज़लों का भी कारवाँ चलता रहा। हिंदी में निराला , शमशेर बहादुर सिंह, और त्रिलोचन ने भी ग़ज़लें लिखीं। यह अलग बात है कि ग़ज़ल उनकी मुख्य विधा नहीं थी। लेकिन दुष्यंत कुमार नें ग़ज़लों के मिज़ाज और भाषा को बदल कर रख दिया। उन्होने हुकूमत के खि़लाफ़ ग़ज़लें लिखीं और भाषा को इतना सहज बना दिया कि वह लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाय। उनकी ग़ज़लें समाज में बहुत लोकप्रिय हुई। विपक्ष के राजनेता उसे सत्ता के विरूद्ध इस्तेमाल करने लगे। अदम गोंडवी की ग़ज़लें दुष्यंत की ग़ज़लों की अपेक्षा ठेठ ग़ज़लें थीं। उनकी ग़ज़लों में अवध के इलाके की धड़कन सुनाई पड़ती है।
       ‘‘ वेा पता ढ़ूँढ़ें हमारा ‘‘ डी एम मिश्र की ग़ज़लों का चौथा संग्रह है। इसके पहले उनके ग़ज़लों की किताब ‘‘ आईना -दर - आईना ‘‘, 2016 में साया हो चुकी है। ग़ज़लों के पहले डी एम मिश्र कविता के क्षेत्र में सक्रिय थे। लेकिन बाद में उन्होने ग़ज़लों को अपनी मुख्य विधा बनाया। ग़ज़ल, कविता से ज्यादा ताक़तवर विधा है। उसका कविता से ज़्यादा तात्कालिक प्रभाव होता है। गीत और ग़ज़ल की यहीं खूंबी है कि वह लोगों के बीच जल्दी लोकप्रिय हो जाती है। डी एम मिश्र की ग़ज़लों का रास्ता दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी के बीच से होकर जाता है। वे अवध की उस सरज़मीं के नागरिक हैं जहाँ सौदा और चक़बस्त जैसे शायर पैदा हो चुके हैं। सरदार जाफ़री ., मजरूह सुल्तानपुरी इसी इलाके के शायर थे। अदम गोंडवी तो उनके समकालीन थे। डी एम मिश्र उसी पथ के पथिक हैं, जिस पर उनके पूर्वज शायर चल चुके है। यह शायर की क़िस्मत ही है कि उसका विकास ऐसे लोगो़ की ग़ज़लें पढ़ कर हो, जो अपनी मौजूदगी पहले दर्ज करा चुके है ।
   डी एम मिश्र की ग़ज़लों में किसी तरह की नज़ाकत या नफा़सत नही है और न घुमा फिरा कर बात कहने की कोशिश की गयी है। वे बिना लाग - लपेट के अपनी बात कहते हैं। उनकी ग़ज़ले आलंकारिक नहीं हैं। वे ठेठ भाषा की ग़ज़लें हैं। उन्हें हम याद रख सकते हैं। जैसा मैंने पहले कहा है कि ग़ज़लों की सबसे बड़ी खा़सियत है कि वह हमारे जुबान पर चढ़ जांय। उन्हें समझने के लिये हमें शब्दकोश न देखने पडें। वह अपनी ग़ज़लों के लिये ऐसी भाषा खोजते हैं जो जनता के बीच प्रचलित हो। कभी -कभी हमें ऐसा लग सकता है कि उनकी ग़ज़लें बेहद सरलीकृत है , उसमें काव्य तत्व नहीं है। लेकिन जब हम ध्यान से उनकी ग़ज़लें पढ़ते हैं तो यह संदेह दूर हो जाता है।
   अवाम के शायर हुस्न और इश्क़ की बातें नहीं करते। वे अपनी शायरी को जनता के दुख - सुख और संघर्ष से जोड़ते हैं। अपनी शायरी में वे सत्ता की धज्जियाँ उड़ाते हैं। वे उन जिम्मेदार लोगों को कटघरे में खड़ा करते हैं जिनके नाते जनता बदहाली की हालत में पहुँच गयी है। डी एम मिश्र अपनी ग़ज़लों में हुकूमत के साथ कोई रियायत नही करते, अपने स्वर को बाक़ायदा मुखर करते रहते हैं। उनके भीतर साहसिकता है, तभी तो वह कहते हैं -

             इतनी सी इल्तिजा है चुप न बैठिये हुजूर
          अन्याय के खि़लाफ़ हैं तो बोलिये ज़रूर
          मुश्किल नही है दोस्तो बस ठान लीजिये
          गर सामने पहाड है तो तोड़िये गुरूर
      वे बहुत आसान भाषा में ग़ज़लें लिखते हैं। जो शायर कठिन भाषा में ग़ज़लें लिख कर अपनी क़ाबिलीयत दिखाते है भले ही वे ग़ज़लें साहित्य का गलहार बने, वह जनता के बीच स्वीकार्य नहीं होगी। ऐसे समय में जब साहित्य में लगातार पाठक -समुदाय कम होता जा रहा है, ऐसे साहित्य की ज़रूरत है जिसमें हमारी भाषा का प्रतिनिधित्व किया गया हो। यह शिकायत बेज़ा नही है कि आजकल की लिखी जा रही कवितायें, ग़ज़लें इतनी अमूर्त होती जा रही हैं कि हमारे हलक तक नहीं पहुंच पातीं। ऐसे समय में मुझे नागार्जुन याद आते हैं। वे कहा करते थे कि हिन्दी कवियों को अपनी कविता में लोकरूपों का प्रयोग करना चाहियें। यह सोच कर मुझे अच्छा लगता है कि डी एम मिश्र की गज़लों ने लोकरूपों का निर्वाह किया है। डी एम मिश्र की ग़ज़लों में सियासत का विद्रूप दिखाई देता है। जो संसद और विधानसभायें मतदाताओं के कल्याण के लिये गठित होती हैं, वे जनता के सपनों को फलीभूत करने के लिये काम नहीं करती हैं । राजनीति जनसेवा के लिये नही व्यवसाय साधन के निमित्त बन गयी है। राजनीति में माफ़ियां और डान का प्रवेश हो गया है। डी एम मिश्र के समकालीन अदम गोंडवी कहते हैं ..
  जितने हरामखोर थे कुर्बो - जवार में
  परधान बन के आ गये अगली कतार में या
  कांजू भुने प्लेट में व्हीस्की गिलास में
  उतरा है रामराज्य विधायक निवास में
    डी एम मिश्र इसी बात को अपनी अंदाज़े-बयाँ में दूसरी तरह कहते हैं-
    ये विधायकों का निवास है ‘दारूलशफ़ा़‘ या हरम कोई
    जनतंत्र कोठा है बन गया उसके लिए कुछ भी नहीं
     आगे एक ग़ज़़ल का अंश देखें -
     दरबारियों की भीड़ है दरबार से चलो
     डेरा मेरा उस पार है इस पार से चलो
     किसने ग़लत पता दिया हम आ गये यहाँ
     दिल बार - बार कह रहा इस द्वार से चलो

   इस ग़ज़ल को पढ़ते हुये यह लग सकता है कि कवि पलायनवादी है। लेकिन ग़ज़लकार की दृष्टि अलग है। दरअसल राजनीति इतनी पतित हो चुकी है कि उससे सहज घृणा होने लगती है। डी एम मिश्र की ग़ज़लों में ऐसे अनेक मंज़र देखने को मिल सकते हैं। उनकी अभिव्यक्ति में नाटकीयता नही़ सहजता है। यही उनके ग़ज़लों की प्राण -शक्ति हैं। डी एम मिश्र के निशाने पर निज़ाम नहीं रसूख़दार लोग हैं जो सत्ता के हितों को पोषित करते है। यह जुगलबंदी सार्वजनिक हो चुकी है। वह सत्ता के किरदार से भलीभांति परिचित है। समकालीन हलचलों पर उनकी नज़र है। अन्य ग़ज़लगो की तरह वे अतीतरागी नही़ है। वे वर्तमान में घटित हो रही घटनाओं को अपनी ग़ज़लों में जगह देते हैं। एक उदाहरण देखें..
             बातें बड़ी-बड़ी करता है सबसे बड़ा मदारी है
             आँखों में वो धूल झोंकता लफ़्जों का व्यापारी है
             जनता से भी उसकी यारी, राजा का भी दरबारी
             ज़रा सँभल कर रहना उससे वो तलवार दुधारी है
      डी एम मिश्र अवाम के लिये अवाम की भाषा में ग़ज़लें कहते हैं। उन्हीं के बीच से शब्द उठाते हैं और अपनी बात करते हैं। उनके पास भाषा का कोई आग्रह नहीं है । हिंदी उर्दू शब्दों के प्रयोग में कोई गुरेज़ नहीं है। बस वे अपने कहन पर ध्यान देते हैं। इस समय ग़ज़लकारों की कम संख्या नही़ं है। सवाल सिर्फ़ यह है कि कैसे कोई अपनी अलग जगह बनाता है। अपने अंदाजें- बयाँ से पहचाना जाता है। डी एम मिश्र अपने समकालीनों में अलग दिखाई देते हैं। यही उनकी कामयाबी है।

स्वप्निल श्रीवास्तव
510 अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज, फैज़ाबाद 224001
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