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जीवन का अस्तित्व / सुरेन्द्र स्निग्ध

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बहुत पहले
सुदूर
अनजान जगह में
कभी किसी पहाड़ पर
कभी किसी सागर के किनारे
या, कभी किसी विरान मरूभूमि में
मिलती थीं तुम ।

कभी साफ़ नहीं दिखा
तुम्हारा चेहरा
कभी पहचान नहीं पाया तुम्हें
लेकिन लगातार मिलती रहीं तुम ।

कभी कहीं दूर क्षितिज के पार
अस्पष्ट-सी
तुम्हारे रूप की उभरती थीं रेखाएँ
इन्हीं से कोशिश करता था
बनाने की एक तस्वीर
उस तस्वीर में उभरती थीं
सिर्फ़ दो बड़ी-बड़ी आँखें
जिनमें समाया होता था
जीवन का पूरा अस्तित्व
उस तस्वीर में कभी-कभी उभरते थे
दो सुडौल वक्ष,
बदलते हुए पूरी दुनिया की शक़्ल में ।

आज जब तुम मिलीं
घने जंगलों में
उस पहाड़ पर
या, समुद्र के किनारे
जहाँ पड़ी थीं
कई छोटी-छोटी नौकाएँ
कई-कई आँखें
देह के संगीत में झूमती सागर की लहरें

इन्हीं लहरों पर झूमता हमारा प्यार
नैसर्गिक प्यार ।