भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीष्मों को ललकार रहे हैं / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

Kavita Kosh से
Jangveer Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:17, 16 जनवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध' |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भीष्मों को ललकार रहे हैं देखो आज शिखंडी।
मक्कारों के क्रय विक्रय की सजी हुई है मंडी॥
उछल रहे हैं बहस के लिए जिनने हँसकर पाया
पुरस्कार, सम्मानसमादर, धन दौलत, पद, माया।
लोकतंत्र तो आज बन रहा शरणस्थल चोरों का,
गद्दारों की कुलकरनी का, झूठे, मुँहजोरों का।

जो गुलाम के हैं गुलाम वे लामबंद हो कहते
"हमें लाज लगती है अब तो इस भारत में रहते।"
उनका कहना "देश नहीं है रहने लायक यारो !
चारों ओर अराजकता है, केवल काटो मारो॥
हिटलरशाही आज देश में,घोर कष्ट है फैला।
 
शामदाम से शत्रु को नहीं सकोगे जीत।
अगर जीतना शत्रु को अपनाओ विपरीत॥

शाम नीति से शत्रु कब होता है भयभीत?
 चिकनाई हटती नहीं पानी से हे मीत!
दंडभेद की नीति भी बड़ी जरूरी तात!
रुद्ध हुआ करता सदा इससे ही उत्पात।