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वह लड़का दुबला-पतला था / भारत यायावर

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अनिल जनविजय को समर्पित

वह लड़का दुबला-पतला था
मेरी यादों में पलता था
वह भावुक औ’ अलबेला था
कविता में जीता-मरता था
वह मेरे मन को भाता था
मैं उसे देखता रहता था
फिर उसको प्राणों में भरता था

वह बच्चों जैसा प्यारा था
मासूम शरारत करता था
वह अनिल अनल बन जाता था
पर नहीं किसी को डँसता था
पर परम-मित्र था मेरा वह
वह मुझसे मोहब्बत करता था

जब भी मिलता बाँहें पसार
बातें करता ज्यों क़िस्सागो
देखा करता कुछ झुक-झुककर
जब भी चलता कुछ रुक-रुककर
जब भी जाता वह दूर-दूर
अपलक निहारता रहता था

उसके पत्रों के आने की
मैं रोज़ प्रार्थना करता था
मैं निसदिन ताका करता था
जब आ जाता पत्र कई बार
पढ़-पढ़कर के फिर-फिर पढ़ता था
फिर अपने भावों को उलीच
एक पत्र डूबकर लिखता था

चिट्ठी-पत्री की आवाजाही
नियमित ही होती रहती थी

उन पत्रों में होते हाल-चाल
कुछ इधर-उधर
कुछ ख़ामोशी
कुछ ख़बर-बाख़बर-ख़बरदार
कुछ धारदार
कुछ शानदार
शब्दों का सारा खेल
अपार

भावुकता की वह अमरलता
हमसे तब लिपटी रहती थी
भाषा का जादू बरकरार
हम लिखते-पढ़ते रहते थे

उन पत्रों में था भरा प्रेम
रसधार बरसती रहती थी
मन आकुल-व्याकुल रहता था
फिर भी कितना कम कहता था

वे दिन मतवाले यौवन के
जब सपनों से भरपूर थे हम
कविता में जीते-मरते थे
धड़कन अपनी कविता ही थी
साँसों में कविता बसती थी
कविता से आँखें पगी-पगी
कविता हमको ही रचती थी

अल्हड़-मतवाले दिन थे वे
जिनका न कहीं था ओर -छोर
पर बँधे हुए हम एक डोर

तब ज़ेब हमारी खाली थी
पर जीवन में हरियाली थी

मैं उन यादों के साथ बँधा
अब भी अपने को पाता हूँ
चलता हूँ अब भी दिवस-शाम
पर कहाँ कहीं जा पाता हूँ
उन यादों की गठरी लेकर
सिरफिरे किसी नामालूम से
घण्टों तक बतियाता हूँ ।