भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नीम तले (नवगीत) / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
नीम तले
सब ताश खेलते
रोज़ सुबह से शाम
कई महीनों बाद मिला है
खेतों को आराम
फिर पत्तों के चक्रव्यूह में
धूप गई है हार
कुंद कर दिए वीर प्याज ने
लू के सब हथियार
ढाल
पुदीने सँग बन बैठे
भुनकर कच्चे आम
शहर गया है
गाँव देखने
बड़े दिनों के बाद
समय पुराना
नए वक़्त से
मिला महीनों बाद
फिर से महक उठे आँगन में
रोटी, बोटी, जाम
छत पर जाकर रात सो गई
खुले रेशमी बाल
भोर हुई
सूरज ने आकर छुए गुलाबी गाल
बोली
छत पर लाज न आती
तुमको बुद्धू राम