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यंत्रों के जंगल में / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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यंत्रों के जंगल में
जिस्मों का मेला है
आदमी अकेला है
चूहों की
भगदड़ में
स्वप्न गिरे हुए चूर
समझौतों
से डरकर
भागे आदर्श दूर
खाई की ओर चला
भेड़ों का रेला है
शोर बहा
गली सड़क
मन की आवाज घुली
यंत्रों से
तार जुड़े
रिश्तों की गाँठ खुली
सुंदर तन है सोना
सीरत अब धेला है
मुट्ठी भर
तरु सोचें
गया नील गगन कहाँ?
बढ़ता वन
ले लेगा
इनकी भी जान यहाँ
व्याकुल है मन पंछी
विरहा की बेला है