भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो कमल था / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
Kavita Kosh से
वो कमल था
कीच पर जो मिट गया
लाख आईं तितलियाँ
ले पर सजीले
कोटि आये भौंर
कर गुंजन रसीले
मंदिरों ने याचना की सर्वदा
देवताओं ने चिरौरी की सदा
सुन सभी को
कर्म में फिर डट गया
कीच की सेवा ही
उसकी बंदगी
कीच की ख़ुशियाँ थीं
उसकी ज़िंदगी
कीच के दुख दर्द में था संग वो
लड़ा हरपल कीच की ही जंग वो
सकल जीवन
कीच में ही कट गया
एक दिन जब वो कमल
मुरझा गया
कीच ने बाँहों में उसको
भर लिया
प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर
कीच ने छिड़का जो नीची कर नज़र
कीच सारा
कमल दल से पट गया