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स्वप्न के संग हम नदी में / विशाल समर्पित

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स्वप्न के संग हम नदी मे
धार के विपरीत बहते

कुछ नहीं
है पास फिर भी
लग रहा रीते नहीं हैं

आज तक
प्रारब्ध के प्रिय
खेल में जीते नहीं हैं

इस तरह हारे हुए हैं
हार को ही जीत कहते (1)

लाख चाहा
पर कभी भी
मन मुताबिक ढल न पाए

अंत तक
का दे भरोसा
दो क़दम संग चल न पाए

साथ यदि मिलता तुम्हारा
कष्ट हँसकर मीत सहते (2)

मौन होता
जा रहा मन
क्षोभ मन में अब नहीं है

हाँ मिलन
का लेशभर भी
लोभ मन में अब नहीं है

अब ह्रदय में तुम नहीं प्रिय
अब ह्रदय में गीत रहते (3)