भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लम्बे बोसों का मरकज़ / शहरयार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:09, 31 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहरयार |संग्रह=शाम होने वाली है / शहरयार }} वह सुबह का सू...)
वह सुबह का सूरज जो तेरी पेशानी था
मेरे होठों के लम्बे बोसों का मरकज़ था
क्यों आँख खुली, क्यों मुझको यह एहसास हुआ
तू अपनी रात को साथ यहाँ भी लाया है।