भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अन्तर्दाह / पृष्ठ 5 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:46, 13 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध' |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सारी संसृति की करुणा
मेरे अंतर में आ कर
चुपके से सिसक रही है
घन में शशि-सुमुख छिपाकर ।।२१।।
खो गयी अहो किस दिशि में
मेरी वह प्रेम - कहानी,
वेदना - विरह - सागर में
मैं डूब रहा मनमानी ।।२२।।
अब नहीं प्यार पा सकता
कोई इस अंतस्तल से,
देखो, बेकार पड़ा है
खारे सागर के जल - से ।।२३।।
इस मुकुल कली - से मन को
कोई ने तोड़ लिया था ,
कर में लेकर कौतुक में
अंतर से जोड़ लिया था ।।२४।।
बेसुध सुख के विभ्रम में
सोया था जान बसेरा ,
पर, लूट चला था कोई
होते ही मधुर सवेरा ।।२५।।