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अन्तर्दाह / पृष्ठ 8 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
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छलकर विश्वास किसी का
खुश पल भर हो सकते हो,
लेकिन प्रवंचना में तुम
निरुपम निधि खो सकते हो ।।३६।।
तेरी प्रतारणा में है
मन - चातक विकल बेचारा,
ओ छलिये ! विदग्धता में
संचित है हृदय हमारा ।।३७।।
वेदना - तिमिर का सागर
लहराता अंतस्तल में,
आकाश असीम अकंपित
डूबा मेरे दृग - जल में ।।३८।।
गिन - गिनकर तारे बीती
मिलने की प्रखर प्रतीक्षा,
उठ - उठ तरंग-सी सोई
मेरी अनंत - सी इच्छा ।।३९।।
तम-पट में उलझी देखा
स्वर्गंगा की धारा को ,
उसमें डूबते निहारा
जीवन के उजियारा को ।।४०।।