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अन्तर्दाह / पृष्ठ 21 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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ये कुंज, विटप, सर, सरिता
रजनी औ' वायु सुरीली
स्थिर वियोग में लगती
मेरी सुख टुकड़ी गीली ।।१०१।।

कितने दिन सुख-संगम के
डूबे विस्मृति के जल में
जग कब तक चल सकता है
केवल आशा के बल में ।।१०२।।

निष्ठुर है करुण कहानी
इन क्षण जीवी सुमनों की
बचती बस परिमल गाथा
मधुरिल मकरन्द धनों की ।।१०३।।

बीहड़ जीवन जंगल में
जलती है भीषण ज्वाला
पर, किधर भटकती मेरी
पीयूष भरी घन - माला ।।१०४।।

छिप गयी कहाँ मन मोहक
मुरली की वह स्वर लहरी
इस में अब गरज रही है
वेदना हृदय की गहरी ।।१०५।।