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अन्तर्दाह / पृष्ठ 30 / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'

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आ तुझे लगा लूँ उर से
आलिंगन हो इस वन में
फिर सुधा-वृष्टि कर मन में
मस्ती भर दे इस तन में ।।१५१।।

चाहे जितनी मादकता
लेनी हो, ले इस जन से
क्यों हाय,अकिंचन कहकर
तू बिछुड़ चली जीवन से ।।१५२।।"

जा जल्दी चली ओ पावनि !
मेरा संदेश सुनाने
मेरी बुझती ज्वाला को
आ जाना पुनः जगाने ।।१५३।।

मैं तेरी प्रत्याशा में
बैठा - बैठा रोऊँगा
हाँ, आना, देर न करना
भूलना न मैं सोऊँगा ।।१५४।।

वृन्तों में फूल खिले हैं
सलिलों में कमल थिरकते
इस चंद्रमुखी रजनी के
घन - घूँघट आज सरकते ।।१५५।।