साड़ी बेचनेवाली सुन्दरियाँ / संजय शाण्डिल्य
जाने कहाँ से प्रकट होती हैं अचानक
अचानक ही
कहाँ गुम हो जाती हैं
ये साड़ी बेचनेवाली सुन्दरियाँ
जिनकी गठरियों के पहाड़ों में
जीवन के रंगों की
कितनी ही बसी हुई हैं साड़ियाँ
ये चलती तो हैं ऐसे
जैसे बिन बोले ही
साफ़ हो जाएँगी
सारी की सारी साड़ियाँ
जो जितनी ही ख़ूबसूरत-जवाँ
वह उतना ही बड़ा कोश
धारे हुए हृदय में गालियों का
थोड़ी भी चूक हुई नहीं ख़रीदार से
कि पल में धुन देगी सातों पुश्त
एक बार माँ ने बिठाया एक को
खुलवाई गठरी
और जो सबसे लहकदार चम्पई साड़ी थी
पूछा उसका भाव
पूरे चार हज़ार बताए थे उसने सन् चौरासी में
माँ ने हँसते हुए पूछा
चालीस में दीजिएगा ?
इतना पूछना था
कि उसने तमतमाते हुए तुरन्त कस ली गठरी
और देखते ही देखते
गालियों के असंख्य विषैले तीर
धँसा दिए माँ की आत्मा में
माँ अवाक् !
क्या कहे – क्या करे ?
इतने में ही महान् आश्चर्य हो गया
उसने उसी वेग से फिर खोली गठरी
और साड़ी निकालकर
ज़मीन पर पटकते हुए कहा
ले चुड़ैलिया, फिर कभी ऐसे न करना
बोहनी का समय है
चल ला !
अल्ला रे !
किनकी हैं ये बेटियाँ
किनकी ये माँएँ
किनकी हैं बीवियाँ
किनकी प्रेमिकाएँ ?
हाय, कैसी ठसक है !
मेरे दिल में कसक है !