Last modified on 17 फ़रवरी 2019, at 19:03

नींद और मृत्यु / संजय शाण्डिल्य

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:03, 17 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय शाण्डिल्य |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

(एक)

नींद एक मृत्यु है
छोटी-सी मृत्यु
जैसे मृत्यु एक नींद है अन्तहीन...

इस नींद से जागकर
मैं उठता हूँ इस पार
उस नींद के बाद
कभी उठूँगा उस पार भी

इस नींद में
मुझे मृत्यु के स्वप्न आते हैं अक्सर
पर हर बार
मैं जीवित हो उठता हूँ इनमें

क्या उस नींद में
मुझे स्वप्न आएँगे जीवन के
आएँगे तो क्या होगा उनमें
और कौन होंगे

तुम्हारी अनुपस्थिति का
कोई स्वप्न
कैसे जीवन्त हो सकता है, प्रिय, मेरी पृथ्वी !
इसलिए आना
उस नींद में भी आना
और स्वप्न में जगाना
मुझे बार-बार जगाना ।

(दो)

नींद एक नदी है
जैसे नदी एक बहुत गहरी नींद
दृश्यादृश्य जिसमें तैरते हैं दिशाहीन ...

और मृत्यु ?
मृत्यु महासमुद्र है
नमकीन और अथाह
जिसमें डूबा हुआ कोई
एकदम लय हो जाता है
प्रेम में होने की तरह ...