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चेहरों पे किरदार लगाए बैठे हैं / विकास जोशी
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चेहरों पर किरदार लगाए बैठे हैं
सब ख़ंजर पे धार लगाए बैठे हैं
फूलों की ख़ुशबू को वो फिर क्या जानें
गमलों में जो ख़ार लगाए बैठे हैं
हक़ अपना हम उनसे कैसे मांगें वो
गर्दन पे तलवार लगाए बैठे हैं
खून से तर रहता है जिसका हर पन्ना
हम ऐसा अखबार लगाए बैठे हैं
गुल है उनके दिल की बत्ती फिर भी हम
दिल से दिल का तार लगाए बैठे हैं
कल तक तलवे चाटे जिसने आका के
आज वही दरबार लगाए बैठे हैं
दौलत वालों को हमसे ये शिकवा है
उम्मीदें हम चार लगाए बैठे हैं
हमको ना बतलाओ किस्से दरिया के
जाने कितने पार लगाए बैठे हैं
इज़्ज़त रखना मौला अब सच्चाई की
दाव पे हम घर बार लगाए बैठे हैं।