भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ दर्पण / ओम नीरव

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:20, 26 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम नीरव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeet}} <poem...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरा इतना भोड़ा चेहरा!
नहीं, नहीं, तुम ही झूठे हो!
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!

माना पाँव पड़े कीचड़ में, छींटे चेहरे पर भी आये,
किन्तु न लाए पास तुम्हारे, कभी बिना धोये चमकाये l
फिरभी तुमने छाप दिये हैं, दाग सभी वैसे के वैसे,
कोई भी जो देख न पाया, वह तुमने ही देखा कैसे?
नहीं नहीं तुम ही झूठे हो l
बोलो बोलो मेरे दर्पण
आखिर क्यों मुझसे रूठे हो?
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!

माना कुछ अनुचित करता हूँ, पर रातों में आँख बचाकर,
सीना तान चला करता हूँ, दिन में सबसे आँख मिलाकर l
फिर भी कर दीं नीची आँखें, मेरा भोड़ा बिम्ब बनाकर,
आँखें नहीं उठा पाता हूँ, दर्पण पास तुम्हारे आकर l
नहीं नहीं तुम ही झूठे हो l
सदा अप्रिय ही बोला करते
बड़े सत्यवादी नूठे हो!
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!
मेरा इतना भोड़ा चेहरा!
नहीं नहीं तुम ही झूठे हो!
ओ दर्पण तुम ही झूठे हो!