भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धर्म-ईमान की लग रहीं बोलियाँ / ओम नीरव
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:57, 27 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ओम नीरव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGeetika}} <p...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
धर्म-ईमान की लग रहीं बोलियाँ।
झूठ पाखण्ड की भर रहीं झोलियाँ।
धर्म प्रह्लाद के नाम पर राख़ ही-
बच रही जब जलायी गयीं होलियाँ।
सत्य ने सिर उठाया तनिक जो कहीं,
झूठ की संगठित हो गयीं टोलियाँ।
आज आकाश छूना सरल है बहुत,
सीढ़ियाँ बन गयीं गालियाँ-गोलियाँ।
कुर्सियाँ दुल्हनें कुछ करें भी तो' क्या,
जब लुटेरों के कंधे चढ़ीं डोलियाँ।
खींच टीवी दुशासन रहा बेखटक,
सभ्यता के तनों पर बची चोलियाँ।
देख सम्बंध पावन अपावन हुए,
काँप थर-थर रहीं राखियाँ-रोलियाँ।
—————————————
आधार छन्द–वाचिक स्रग्विणी
मापनी–गालगा गालगा-गालगा गालगा