भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहाड़-2 / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
कुमार मुकुल (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 08:59, 1 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: कैसा वलंद है पहाड़ एक चट्टान जैसे खड़ी होती है आदमी के सामने उसका रुख ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसा वलंद है पहाड़

एक चट्टान

जैसे खड़ी होती है आदमी के सामने

उसका रुख मोड़ती हुई

खड़ा है यह हवाओं के सामने


चोटी से देखता हूँ

चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक

इसकी छाती पर

जो धीरे-धीरे शहरों को

ढो ले जाएंगे पहाड़

जहाँ वे सड़कों, रेल लाइनों पर बिछ जाएंगे

बदल जाएंगे छतों में


धीरे-धीरे मिट जाएंगे पहाड़

तब शायद मंगल से लाएंगे हम उनकी तस्वीरें

या बृहस्पति, सूर्य से

बाघ-चीते थे

तो रक्षा करते थे पहाड़ों की, जंगलों की

आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है

अब पहाड़ों को तो चिड़ि़याख़ानों में

रखा नहीं जा सकता

प्रजनन कराकर बढ़ाई नहीं जा सकती

इनकी तादाद


जब नहीं होंगे सच में

तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़

और भी ख़ूबसरत होते बादलों को छूते से

हो सकता है

वे काले से

नीले, सफ़ेद

या सुनहले हो जाएँ

द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं की तरह

और उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए

वे हो जाएँ लुभावने

केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।