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सावन की रात / जीवनानंद दास / मीता दास

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कहीं दूर बँगाल की खाड़ी की आवाज़ सुन कर
सावन की रात्रि के गहरे अन्धकार में
धीरे-धीरे नीन्द टूटती है
शायद बरसात बहुत पहले ही बरस कर थम गई है;
मिट्टी के अन्तिम छोर पर तरँगों की गोद में चुपचाप बैठी हो जैसे;
और निस्तब्ध होकर, दूर से आती हुई उपसागर की ध्वनियाँ सुन रही हो जैसे ।